शनिवार, 5 दिसंबर 2009
ना उम्मीद रहो, खुश रहो
उम्मीदों का पहाड़ जब टूटता हैं
एक छोटी सी ठोकर से
एक हलकी सी चोट से
बहुत कुछ टूटता हैं
अरमानो की गठरी
एक छोटे से छेद से
भरभरा कर खाली हो जाती हैं
दिल पर लगा जख्म भी भर जाता हैं
पर आत्मा पे लगी सुई की नोक
चुभती रहती हैं सालो साल
स्वाभिमान झुक तो जाता हैं
रिश्तो में मजबूरियां होती हैं
और जब तक नही झुकता
तब तक दूरियां ही रहती हैं
मेरी नजर में ये झुकना समर्पण हैं
एक अच्छे प्रयोजन में
जैसे किसी चंचल नदी का सागर में विलय होना
जहाँ प्रेम हैं वहां समर्पण हैं
विलय हैं
आत्मा का परमात्मा से मिलन
झुकने का ही नतीजा होता हैं,
तभी निजात मिलती हैं
आत्मा को उस सुई की नोक की चुभन से
इतने बड़े पहाड़ क्यूँ खड़े करते हो
इतने ऊंचे ऊंचे
जो एक हलकी सी ठेस के काबिल नही
ना उम्मीद ही रहो
पर खुश रहो
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bahut sachchi baat
जवाब देंहटाएंna ummed karo na thes lagegi
khush rahoge
kamaal ki kavita likhte hain aap
धन्यवाद श्रद्धा जी, आप भी बहुत अच्छा लिखती हैं/
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